“संसद और विधानमंडल में दोषी राजनेता कैसे वापस आ सकते हैं?’ सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र चुनाव आयोग से मांगा जवाब।”

यह मामला जस्टिस दीपंकर दत्ता और न्यायमूर्ति मनमोहन की बेंच के समक्ष आया। सुप्रीम कोर्ट ने जन प्रतिनिधित्व पर अधिनियम की धारा 8 और 9 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर केंद्र और चुनाव आयोग से 3 सप्ताह के भीतर जवाब मांगा है। जन्म प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8 और 9 पर जोर देते हुए बेंच ने कहा है कि भ्रष्टाचार और राज्य के प्रति निष्ठा हीनता का दोषी पाया जाने वाला सरकारी कर्मचारी व्यक्ति के रूप में भी सेवा के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता, लेकिन वह मंत्री हो सकता है।

मुकेश कुमार (क्राइम एडिटर इन चीफ ) TV 9 भारत समाचार नई दिल्ली। 

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को राजनीति के अपराधीकरण की निंदा करते हुए कहा है कि अपराधिक मामले में अपराधी ठहराएं जाने के बात कोई व्यक्ति संसद में कैसे वापस आ सकता है। सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता अश्वनी उपाध्याय द्वारा दायर जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए यह सवाल किया। याचिका में देश में सांसदों और विधायकों के ख़िलाफ़ आपराधिक मामलों के शीघ्र निपटारे के अलावा दोषी राजनेताओं पर आजीवन प्रतिबंध लगाने की मांग की गई थी। 

यह मामला जस्टिस दीपंकर दत्ता और न्याय मूर्ति मनमोहन की बेंच के समक्ष आया। सुप्रीम कोर्ट ने जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8 और 9 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर केंद्र और चुनाव आयोग से तीन सप्ताह के भीतर जवाब मांगा है। जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8 और 9 पर जोर देते हुए बेंच ने कहा है कि भ्रष्टाचार और राज्य के प्रति निष्ठा हीनता का दोषी पाया जाने वाला सरकारी कर्मचारी व्यक्ति के रूप में भी सेवा के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता, लेकिन वह मंत्री हो सकता है।

एक बार जब कोई राजनेता दोषी ठहराया जाता है, और दोष सिद्धि बरकरार रहती है, तो लोग सांसद और विधानमंडल में कैसे वापस आ सकते हैं? उन्हें जवाब देना होगा।

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अदालत ने कहा है कि राजनीति का अपराधीकरण एक बहुत बड़ा मुद्दा है और इसमें हितों का टकराव स्पष्ट है। बेंच ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट कानूनों की समीक्षा करेगा। पिटने अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी से इस मुद्दे पर निर्णय लेने में सहायता करने को कहा है। चुनाव आयोग ने अपने विवेक का इस्तेमाल किया होंगा, और अदालत के समक्ष जो कुछ भी प्रस्तुत किया गया है, उससे बेहतर समाधान भी ढूंढा होंगा।

मामले में न्यायमित्र वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसरिया ने दलील दी है कि समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए आदेशों और हाईकोर्ट द्वारा निगरानी के बावजूद, सांसदों के ख़िलाफ़ बड़ी संख्या में लंबित है। हंसरिया ने कहा है कि यह शर्म की बात है कि इतना कुछ होने के बाद भी 42% मौजूद लोकसभा सदस्यों पर आपराधिक मामले लंबित है। उन्होंने कहा कि ऐसे मामले 30 सालों से लंबित हैं।

उपाध्याय का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता विकास सिंह ने कहा है कि सांसदों का कभी यह इरादा नहीं था कि बलात्कार, हत्या जैसे जघन्य अपराधों में दोष ठहराएं गए और 2 से 3 साल की छोटी सज़ा के बाद रिहा किए गए व्यक्ति को संसद या विधायक के रूप में चुना जाएं।

बेंच में बताया गया है कि 2017 में सुप्रीमकोर्ट ने निर्देश पारित किए थे, अदालत में 10 अलग-अलग राज्यों में 12 विशेष अदालतें स्थापित करने और सांसदों और विधायकों के ख़िलाफ़ लंबित आपराधिक मामलों के शीघ्र निपटारे की निगरानी के लिए कई निर्देश पारित किए गए।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह मामला जन प्रतिनिधित्व अधिनियम , 1951 की धारा 8 और 9 की संवैधानिक वैधता से जुड़ा है। इसलिए अटॉर्नी जनरल को इस पर विचार करना चाहिए। पीठ ने कहा है कि तीन न्यायाधीशों की पीठ ने सांसदों के ख़िलाफ़ आपराधिक मामलों के शीघ्र निपटारे पर फैसला सुनाया था, इसलिए दो न्यायाधीशों द्वारा मामले को फिर से खोलना अनुचित होंगा। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने निर्देश दिया कि इस मुद्दे को बड़ी पीठ द्वारा विचार के लिए सीजेआई संजीव खन्ना के समक्ष रखा जाएं। अदालत में मामले पर आगे विचार के लिए 4 मार्च की तारीख तय की है।

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